मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

भ्रष्टाचार - कारण नहीं परिणाम

भ्रष्टाचार होता रहेगा मकसद सिर्फ पैसा. कारण पैसा  वर्तमान व्यवस्था की आत्मा है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार की जड़ . भ्रष्टाचार पैसे के लिये हो रहा या पैसे से हो रहा है.  इस तरह भ्रष्टाचार वर्तमान अव्यवस्था का कारण नहीं बल्कि वर्त्तमान अव्यवस्था का नतीजा है.
  केवल भ्रष्टाचार पर काबू करने के सारे प्रयास बेकार ही साबित होंगे जब तक की हमारी व्यवस्था  सामाजिक मूल्यों के अनुरूप न हो.



वर्तमान समय में भ्रष्टाचार सबसे ज्यादा ज्वलंत एवं विचारणीय विषय है उससे भी ज्याद यह  अपने -आप में  उलझा हुआ है. इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करने के क्रम में सबसे  पहले शब्द  विचार  करते हैं .  भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है भ्रष्ट आचरण यानि ऐसा आचरण जो हमारे सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप या अनुकूल न हो. इसमें सबसे बड़ी खासियत यह है कि जो होता वह दिखता नहीं, जो दिखता वह होता नहीं. इसलिए इसके कार्यकलापों का दायरा भिन्न -भिन्न रूपों में बढ़ जाता है. दुसरे तरफ शक का दायरा भी बढ़ जाता है और विश्वास सिमटते जाता है. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि अगर कोई व्यक्ति या समूह कभी निजी स्वार्थ से उठकर सामाजिक हित कि बात करता है तो हम उसका भरोसा  नहीं करते. इस तरह सामूहिक विकास का गला घुट जाता है.
    भ्रष्टाचार का विलोम शब्द ईमानदारी है  जो ईमान से बना है जिसका अर्थ है  खुदा में  विश्वास. यानि  स्वयं  से हटकर उस सर्वशक्तिमान में आस्था जिसके  यहाँ देर है अंधेर नहीं, जहाँ इंसाफ होता है ,धोखा नहीं जिसका अस्तित्व जीवन -मरण से ऊपर है. यह तो पूरी तरह धार्मिक बात है. सत्ता और व्यवस्था में  धर्म कि बात करना सांप्रदायिक है .इससे तो दंगे -फसाद फैलते हैं. जी नहीं ,  दंगा किसी   भगवन,  मंदिर,मस्जिद और गुरुद्वारे से नहीं फैलता , दंगा हम फैलाते हैं  अपने  निजी स्वार्थ के लिए . यह भी भ्रष्टाचार  है. कारण कि होता कुछ है दिखता कुछ और है. हमारी पुरानी आदत / परम्परा है ,  जब  अच्छा हो  तो मैंने किया बुरा हो तो भगवन ने . इसका मतलब है हम अच्छे  भगवन बुरा.       सरासर झूठ.
    खैर , यह भ्रष्टाचार रुपी राक्षस किसी राम-कृष्ण से भी मिटने वाला नहीं.है क्योंकि इसे हम सभ्य लोगों ने समाज और संस्कृति  को छोड़ सबसे से आगे निकलने के लिए अपने जीवन के हरेक रंग -ढंग में शामिल कर लिया है. इसका भी कारण है. समय के साथ हम और समज दोनों बदले .  समज हमेशा  से किसी न किसी सत्ता के अधीन रहा है,आज भी है. अंतर इतना है पहले समाज राज सत्ता के अधीन,  राजा धर्म सत्ता के अधीन ( राजा के प्रत्येक निति और निर्णय में पुरोहित की भूमिका निर्णायक  होती  थी ).  इस तरह सामाजिक व्यवस्था धार्मिक नियमों से नियंत्रित एवं निर्देशित थी. धर्म अध्यात्मिक विकास पर जोर देता है तथा अध्यात्म नैतिक विकास पर .तब भारत जगत गुरु था.

 बितते समय के साथ धर्म के अन्दर पाखंडो का घुलना-मिलाना  प्रारंभ हुआ. लम्बे समय तक विरोध भी नहीं हुआ क्योंकि धर्म आस्था पर टिका था. जब विरोध हुआ तो धीरे-धीरे व्यवस्था बदल गयी .पहले निरंकुश राजशाही फिर बाहरी आक्रमण उसके बाद वर्तमान लोकतंत्र. इस तरह जो व्यवस्था आयी इन सब में अर्थ (धन ) का दबदबा कायम रहा. दुसरे शब्दों में वर्तमान व्यवस्था अर्थ के लिए , अर्थ द्वारा , अर्थ (आर्थिक संसाधनों) पर किया जा रहा शासन है..
   इस तरह इस अर्थ प्रधान समाज में सबों का धन के पीछे भागना स्वाभाविक है. अगर धन नहीं तो कुछ नहीं. हमारी सारी आवश्यकताएं वित्त आधारित है. रोटी, कपड़ा,मकान,शिक्षा और  ईलाज के साथ-साथ सुरक्षा भी.  वित्त के आभाव में हम अपनी जिंदगी एक पल , एक कदम भी नहीं. हिला सकते.चलने की बात तो दूर है. ऐसे में चित्त का वित्त के पीछे दौड़ लगाना जायज है या नाजायज कहना  मुश्किल है.
      किसी को कितन पैसा चाहिए यह सीमा समाज को तय करना  है.. जब तक समाज को बुनियादी सुविधाए नहीं नहीं मिलेगी यह तय करना असंभव कार्य है.अगर नहीं. तो समज पैसे के पीछे -पीछे दौड़ लगाएगा और इस दौड़ में समाज की सारी मर्यादाएं बिखर जाएगी सरे वसूल पीछे छुट जाएँगे .
  भ्रष्टाचार होता रहेगा मकसद सिर्फ पैसा. कारण पैसा  वर्तमान व्यवस्था की आत्मा है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार की जड़ . भ्रष्टाचार पैसे के लिये हो रहा या पैसे से हो रहा है.  इस तरह भ्रष्टाचार वर्तमान अव्यवस्था का कारण नहीं बल्कि वर्त्तमान अव्यवस्था का नतीजा है.
    केवल भ्रष्टाचार पर काबू करने के सारे प्रयास बेकार ही साबित होंगे जब तक की हमारी व्यवस्था  सामाजिक मूल्यों के अनुरूप न हो.


धन्यवाद 
राजीव रंजन चौधरी
  
    





 

इच्छाएँ

  जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और  केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद