शनिवार, 17 मार्च 2012

अधूरे संवाद

       श्री गोविन्दाचार्य जी के नेतृत्व में पंचायतों  को भारत के कुल बजट का सीधे  ७% हिस्सा दिया जाए के मांग पर  जंतर - मंतर पर १२ ,१३ ,१४ मार्च को धरना- प्रदर्शन का  किया गया. मांग वाजिब और सटीक है. इसे लागु करने का तरीका  भी लिक से हटकर है कि 
ग्राम सभा  आम सहमती से विकास कार्यों को मंजूर करे तथा ग्राम पंचायत को कार्य निष्पादन कि जिम्मेवारी हो.
    देश भर से गोविन्द जी और राष्ट्रीय स्वाभिमान  आन्दोलन से जुड़े हुए लोग इस मुद्दे को अपना समर्थन और सहयोग देने के लिए जंतर मंतर पर पहुंचे .  यह मुद्दा पहली बार उठाया गया है
इसलिए यह तो शुरुआत है. इस मुद्दे  की मंजिल सरकार द्वारा पंचायत को धन देना नहीं बल्कि गाँवों द्वारा इसे स्वीकारना  और पूरी ताकत के साथ आवाज उठाना है. कारण कि जब तक गाँव अपने विकास  के बारे में खुद विचार और बहस नहीं करते तब तक इस विषय का मंथन नहीं होगा . भारत गांवों का देश है इसलिए गाँव की आवाज को कोई भी सरकार क्या, कोई भी व्यवस्था न तो नकार सकती है ना ही  दबा सकती है. 
    अब सबसे बड़ी चुनौती इस मुद्दे को सही सलामत गांवों तक पहुंचाना है. कभी - कभी कहने -सुनाने में मुद्दे भी भटक जाते हैं.  गांवों तक इसे पहुचने के लिए बड़ी संख्या में ग्रामीण कार्यकर्ताओं और  वैसे लोगो की आवश्यकता है जो गाँव के मिजाज को अच्छी  तरह समझते है
 इसके लिए राष्ट्रिय स्वाभिमान आन्दोलन के नेतृत्व यानि गोविन्द जी और उनसे जुड़े लोगों तथा ग्रामीण कार्यकर्ताओं के बिच संवाद जरुरी है
   परन्तु जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय धरना के दौरान बहुत से ऐसे लोग संवाद नहीं कर पाए जिनके विचारो की नितांत आवश्यकता है, जबकि ऐसे बहुत से लोग बोलते गए जिनका इस विषय से कोई लेना देना नहीं है. वे इसलिए बोलते गए क्योंकि वे गोविन्द जी से जुड़े लोगों से जुड़े हैं और वर्षों से ऐसे धरना  प्रदर्शनों में बोलते रहे हैं. ये किसी मुद्दे पर कुछ  समय तक  बोलने में समर्थ है. 
 ऐसे मौकों पर कौंग्रेस पार्टी  तथा सोनिया गाँधी को भला - बुरा कहना या बज़ट के ७% में से १०-१५% पहुचने की बात करना बेतुक तो था हीं साथ - साथ देश भर से आये लोगों की भावनाओं को  आहत करना था.
 संवाद सही मायनों में उचित विषय पर, उचित  व्यक्ति द्वारा, उचित समय पर, उचित शब्दों द्वारा, उचित व्यक्ति के साथ विचार विमर्श है.  इस दृष्टि से तीन दिवसीय धरना के दौरान संवाद अधुरा रहा . अधूरे संवाद से सहमती नहीं , जब सहमती नहीं तो सहकार काल्पनिक होता है.    
  अगर हालात ऐसे ही रहे तो राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन ऐसे अवसादों की वजह से अपने कार्यकर्ताओं, सहयोगियों तथा समर्थकों से संवाद नहीं कर पायेगा. जैसे पानी गर्म करने वाला छड अवसाद जमा हो जाने से अपना कम ठीक से नहीं कर पाता.

        अब चर्चा  इस बात पर होना चाहिए की इस मुद्दे  को गांवों तक कैसे पहुँचाया जाय ताकि यह मुद्दा दिल्ली का न रहकर गाँव का होकर पुरे जोश के साथ पुरे भारत में उभरे और भारत के विकास का नेतृत्त्व करे.


धन्यवाद

राजीव रंजन चौधरी

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इच्छाएँ

  जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और  केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद