अब
बर्बादियों के घेरे से निकली हैं राहें ,
उम्मीदों के दर पे टिकी हैं निगाहें .
ओ खुद को खुदा समझने वाले ,
क्यों नहीं समझते, बेबसों की सिसकती आहें.
क्यों नहीं जाते , जहाँ राह देखती सुनी राहें.
जिन्हें तुने ठगा , यही हैं वो लोग सीधे सादे,
भूल गए 5 साल पहले किये गए अपने ही वादे.
भेड़िये आते है हर बार मुँह में तिनका दबाये,
दोनों हथेलिया सटा कर विनम्रता से सिर झुकाए.
बड़े सादगी से झूठे वादों से लुभाने ,
हर तरफ तूफां पे रेत के महल बनाने.
अब समझ गए हैं तेरी उलझी पहेली,
बैठ कर मलते रहो अब अपनी हथेली.
भाग्यविधाता तू नहीं हम स्वयं रहेंगें,
अपने हाथों नव भारत का निर्माण करेंगे .
....... राजीव रंजन चौधरी
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