शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

अब

बर्बादियों के घेरे से निकली हैं राहें ,
उम्मीदों के दर पे टिकी हैं निगाहें .
ओ खुद को खुदा समझने वाले ,
क्यों नहीं समझते, बेबसों की सिसकती आहें.
क्यों नहीं जाते , जहाँ राह देखती सुनी राहें.
जिन्हें तुने ठगा , यही हैं वो लोग सीधे  सादे,
भूल गए 5 साल पहले किये गए  अपने ही वादे.
भेड़िये आते है हर बार मुँह में तिनका दबाये,
दोनों हथेलिया सटा कर  विनम्रता से सिर झुकाए.
बड़े सादगी से झूठे वादों से लुभाने , 
हर  तरफ तूफां पे रेत के महल बनाने. 
अब समझ गए  हैं  तेरी उलझी  पहेली,
बैठ कर मलते रहो अब अपनी हथेली.  
भाग्यविधाता तू नहीं हम स्वयं रहेंगें,
अपने हाथों नव भारत का निर्माण करेंगे . 
                                     
                               ....... राजीव रंजन चौधरी

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इच्छाएँ

  जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और  केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद