रविवार, 10 सितंबर 2023

चालाकियां

 

देर तक सोना अच्छा नहीं लगता,

मगर सोता हूं।

अक्सर जगे रहने से सोने की ख्वाहिश होती है,

इसलिए बेवक्त भी सोता हूं।

नादानियों से ऊबकर कुछ चालाकियां की मैने,

अब उन्हीं चालाकियों पर रोता हूं।

 

वो

 

वो मौज हो गई, मैं किनारा रहा।

दूर से ही सही पर सहारा रहा।।

हालातों का हरदम मैं मारा रहा।

खुद से न खुद का गवारा रहा।।

शिकवे शिकायत का अंत हो गया।

अब तो हर मौसम बसंत हो गया।।

धन्यवाद!

खिड़की तो खोल

 

जिस समंदर में डूबे है कई सारे,

वहां भी कितनों का बसेरा है।

समय है एक ही,

किसी की रात तो किसी का सवेरा है।

पर्दे हटा, खिड़की तो खोल,

सूरज सर पर और तेरे घर में अंधेरा है।

दिल पे बोझ कैसा, आंखे नम क्यूं,

जी भर जी ले, ना तेरा ना कुछ मेरा है।

धन्यवाद!


गुरू कृपा


 जिंदगी नदी गुरू नाव है।

जिंदगी धूप गुरू छांव है।।

शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

धर्म की राजनीति

किसी के ऊपर किसी के द्वारा असंगत रूप से अधिकार जमाने की कोशिश होती है तो उसे सामान्य बोलचाल में आक्रमण कहते हैं। वही इस आक्रमण से होने वाले नुकसान को संक्रमण कहा जाता है। वर्तमान में जिस तरह से राजनीति द्वारा धर्म पर अधिकार जमाने या धर्म को अपने ही तरीके से परोसने की कोशिश हो रही है उसे धर्म पर राजनीति का संक्रमण  कहा जा सकता है। यह संक्रमण धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है और यह धर्म को पूरी तरह से बीमार करने वाला है। राजनीतिक फायदे के लिए धर्म का प्रयोग कोई नई बात नहीं यह राजनीति के प्रारंभिक दौर से होते आ रहा धर्म हमेशा ही राजनीति के नेपथ्य में रहा। आज के दौर में विशेष कर भारत में राजनीति  धर्म के नेपथ्य में चली गई और  धर्म के कंधे पर बंदूक रखकर अपना निशाना साध रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निशाने पर हमेशा ही आम जनता रहती है। लोक के लिए धर्म एक भावनात्मक पहलू है यहीं कारण  है कि लोक यानी जनता धर्म के नाम पर बहुत कुछ सहन कर सकती है।  राजनीति करने वाले भली भांति जानते हैं कि धर्म के आगे  विकास की राजनीति घुटने टेक देगी। परंतु इस खेल में धर्म का जो नुकसान होगा या कहें कि हो रहा है इसका आकलन शायद ही कोई कर रहा है।

 जिस तरह आजादी की लड़ाई में राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में धार्मिक और दार्शनिक लोगों द्वारा नेतृत्व किया गया और उसका नतीजा है कि आज की राजनीति बिना पेंदी के लोटे की तरह मतलबवाद के इर्द गिर्द घूम रही है। ठीक उसी तरह वर्तमान में धर्म को बचाने का ठेका नेताओं द्वारा स्वतः ही ले ली गई है जबकि आध्यात्मिक धार्मिक लोग चुप हैं और हासिए पर चले गए  हैं इसका नतीजा किसी भी प्रकार से शुभ नहीं होने वाला।  सत्ता पाने के लिए जिस तरह से धर्म के अखाड़े में राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही है इससे धर्म अपनी पहचान और आत्मा को खो देगा। 

धन्यवाद

राजीव रंजन चौधरी 


मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

मनरेगा या मन रे गा ...

                                           
वर्तमान व्यवस्था में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा जिस योजना पर सबसे ज्यादा प्रकाश (फोकस ) डाला जा रहा है वह है मनरेगा  (Mahatma Gandhi National Rural Employment Gurantee Act ). प्रचार -प्रसार के सारे  माध्यमों  द्वारा इस योजना को भारत नवनिर्माण की बुनियाद बताया जा  रहा है . एक तरफ सरकार द्वारा इस बेमतलब योजन के  साथ -साथ इसके  प्रचार पर भी करोड़ों खर्च  रहे हैं  दूसरी तरफ प्रधान मंत्री
कहते हैं कि पैसे पेंड़  पर नहीं लगते .आज हम इसके तह में जाकर लेखा -जोखा के मूड में है।

रोजगार का अभिप्राय उस नियमित कार्य से है जिसके निष्पादन के  उपरांत नियमित रूप से धन प्राप्ति हो जिससे घर परिवार का खर्च वहन  किया जा सके .  मनरेगा  आया रोजगार लेकर  लेकिन एक ऐसा रोजगार जो रोज दम तोड़ देता है . आज किये गए काम का कल कोई मतलब नहीं। मजदूरी या वेतन काम के बदले मिलता है परन्तु यहाँ पैसा खर्च करने के लिए काम  होता है  यानी मेहनताना पहले मेहनत बाद में। यह इस योजना की बुनियादी विकार है। एक तरह से यह  विकासशील भारत की सबसे बड़ी बाधा है। करोडो हाथ केवल पैसे के लिए काम  पर जाते है, उनके  काम से लौटते ही उस काम का कोई मतलब नहीं रहता . इसके तहत ऐसा कोई कम नहीं होता जिसका  विकास में भागीदारी हो सके . इस योजना के अंतर्गत  केवल काम यानि  कि मजदुरी के पैसे होते है किसी संसाधन के नहीं . संसाधन के अभाव में केवल मिट्टी  खोदने और गढे  भरने का का काम  होता है . इस प्रकार असंख्य हाथों का विकास में कोई भागीधारी नहीं है।   बिना काम के काम से पैस मिलने के कारण खेती कार्यों में मजदूर नहीं मिल रहें है। जो खेती के लिए अभिशाप है।ये तो रही इस योजना में ईमानदारी की बात।
अब बेईमानी की बात।
  एक  तो इतने अमीर  सरकारी  योजन को देख कर अच्छे-अच्छे ललच जाते है। ललचे भी क्यों न? सरकारी धन मिट्टी  में ही तो मिलना  है। बेकाम के काम का ही  पैसा देना है। मिट्टी में मिले का हिसाब कहाँ मिलता  है जो इसका हिसाब किताब रखा जाय। दूसरी बात बेकाम  के काम के हिसाब में क्या रखा है? इस सिद्धांत को ध्यान  में रखते हुए सरकारी -गैर सरकारी  हस्ताक्षरी इसमें अपना भागीदारी सुनिश्चित कर लेते हैं। अब बात आती है उन लोगों की जो बेकाम के काम का पैसा लेते हैं और  ठप्पा लगा देते हैं।  इस  योजना  के अंतिम उपभोक्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता की किस काम में कितने लोग वास्तव में काम कर रहे थे और कितने लोग कागज पर।
 होता यह है की मुखिया और अन्य  सबंधित पदों पर सुशोभित व्यक्तियों द्वारा मनरेगा  कार्ड  बनाने में ही गड़बड़ी कर दी जाती है तथा कार्ड धारक के नाम पर पैसे निकल लिए जाते है। पूरा तंत्र शामिल है,अतः जाँच की सम्भावना नहीं के बराबर  होती है।
इस योजन की खासियत है कि इसमें सब बेवजह खुश हैं। सरकार भी फुले नहीं समा रही , कारण  की  सरकार  इसे वोट-बादल  के रूप में देखा रही है। 

इसीलिए तो हम कहते हैं यह मनरेगा  नहीं मन  रे   गा ......है।

    अब भविष्य की बात।
 वर्तमान आर्थिक मंदी और महंगाई के इस दौर में सरकार  जिस प्रकार से आधारभूत उत्पादों (रसोई गैस, बिजली तथा पेट्रोलियम पदार्थ इत्यादि) से अपना  सब्सिडी  हटा रही है उसे देखते हुए यह गुमान होता है कि 
एक दिन मनरेगा  जैसी योजना का बंद होना तय है। उसके बाद अनगिनत लोग एकाएक आर्थिक तंगी के शिकार हो जायंगे, इससे जो परिस्थितियाँ पैदा होंगी, जो हालात होंगे उससे निपटना किसी भी व्यवस्था के लिए मुश्किल होगा।

मेरे विचार से इस योजना को बंद कर इन पैसों से ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज  भंडार बनाये जाये , फसल  सुरक्षा के इंतजाम किये जाएँ , ग्रामीण इलाकों में बाजार विकसित कियें जाये , गांवों का शहरों से जुड़ाव बेहतर हों, किसानो को व्यवसायिक कृषि का प्रशिक्षण तथा अन्य जानकारी एवं सुविधाएँ दी जाय , साथ ही साथ शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बेहतर बनाने पर जोर हो। जिससे आधाभूत ढांचा के साथ -साथ कुशल एवं प्रशिक्षित कामगार के द्वारा भारत का नव निर्माण हो सके।

जय हिंद।


राजीव रंजन चौधरी







 

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

भारत की व्यवस्था लोकतान्त्रिक है  .यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसका  ताना-बाना जनता द्वारा बुना गया हो।
 परन्तु वर्तमान  व्यवस्था कही से भी आम लोगों के पक्ष में प्रतीत नहीं हो रही। इसके उलट यह मछली पकड़ने वाले  ऐसे जाल की तरह है जिसमें लोक -लुभावन जनहितकारी योजनायें उसी तरह गुथी गई हैं जैसे जाल  में मछली पकड़ने के लिए चारे गुथे जाते है। 

इच्छाएँ

  जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और  केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद