जिंदगी नदी गुरू नाव है।
रविवार, 10 सितंबर 2023
शुक्रवार, 8 सितंबर 2023
धर्म की राजनीति
किसी के ऊपर किसी के द्वारा असंगत रूप से अधिकार जमाने की कोशिश होती है तो उसे सामान्य बोलचाल में आक्रमण कहते हैं। वही इस आक्रमण से होने वाले नुकसान को संक्रमण कहा जाता है। वर्तमान में जिस तरह से राजनीति द्वारा धर्म पर अधिकार जमाने या धर्म को अपने ही तरीके से परोसने की कोशिश हो रही है उसे धर्म पर राजनीति का संक्रमण कहा जा सकता है। यह संक्रमण धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है और यह धर्म को पूरी तरह से बीमार करने वाला है। राजनीतिक फायदे के लिए धर्म का प्रयोग कोई नई बात नहीं यह राजनीति के प्रारंभिक दौर से होते आ रहा धर्म हमेशा ही राजनीति के नेपथ्य में रहा। आज के दौर में विशेष कर भारत में राजनीति धर्म के नेपथ्य में चली गई और धर्म के कंधे पर बंदूक रखकर अपना निशाना साध रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निशाने पर हमेशा ही आम जनता रहती है। लोक के लिए धर्म एक भावनात्मक पहलू है यहीं कारण है कि लोक यानी जनता धर्म के नाम पर बहुत कुछ सहन कर सकती है। राजनीति करने वाले भली भांति जानते हैं कि धर्म के आगे विकास की राजनीति घुटने टेक देगी। परंतु इस खेल में धर्म का जो नुकसान होगा या कहें कि हो रहा है इसका आकलन शायद ही कोई कर रहा है।
जिस तरह आजादी की लड़ाई में राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में धार्मिक और दार्शनिक लोगों द्वारा नेतृत्व किया गया और उसका नतीजा है कि आज की राजनीति बिना पेंदी के लोटे की तरह मतलबवाद के इर्द गिर्द घूम रही है। ठीक उसी तरह वर्तमान में धर्म को बचाने का ठेका नेताओं द्वारा स्वतः ही ले ली गई है जबकि आध्यात्मिक धार्मिक लोग चुप हैं और हासिए पर चले गए हैं इसका नतीजा किसी भी प्रकार से शुभ नहीं होने वाला। सत्ता पाने के लिए जिस तरह से धर्म के अखाड़े में राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही है इससे धर्म अपनी पहचान और आत्मा को खो देगा।
धन्यवाद
राजीव रंजन चौधरी
मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012
मनरेगा या मन रे गा ...
वर्तमान व्यवस्था में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा जिस योजना पर सबसे ज्यादा प्रकाश (फोकस ) डाला जा रहा है वह है मनरेगा (Mahatma Gandhi National Rural Employment Gurantee Act ). प्रचार -प्रसार के सारे माध्यमों द्वारा इस योजना को भारत नवनिर्माण की बुनियाद बताया जा रहा है . एक तरफ सरकार द्वारा इस बेमतलब योजन के साथ -साथ इसके प्रचार पर भी करोड़ों खर्च रहे हैं दूसरी तरफ प्रधान मंत्री
कहते हैं कि पैसे पेंड़ पर नहीं लगते .आज हम इसके तह में जाकर लेखा -जोखा के मूड में है।
रोजगार का अभिप्राय उस नियमित कार्य से है जिसके निष्पादन के उपरांत नियमित रूप से धन प्राप्ति हो जिससे घर परिवार का खर्च वहन किया जा सके . मनरेगा आया रोजगार लेकर लेकिन एक ऐसा रोजगार जो रोज दम तोड़ देता है . आज किये गए काम का कल कोई मतलब नहीं। मजदूरी या वेतन काम के बदले मिलता है परन्तु यहाँ पैसा खर्च करने के लिए काम होता है यानी मेहनताना पहले मेहनत बाद में। यह इस योजना की बुनियादी विकार है। एक तरह से यह विकासशील भारत की सबसे बड़ी बाधा है। करोडो हाथ केवल पैसे के लिए काम पर जाते है, उनके काम से लौटते ही उस काम का कोई मतलब नहीं रहता . इसके तहत ऐसा कोई कम नहीं होता जिसका विकास में भागीदारी हो सके . इस योजना के अंतर्गत केवल काम यानि कि मजदुरी के पैसे होते है किसी संसाधन के नहीं . संसाधन के अभाव में केवल मिट्टी खोदने और गढे भरने का का काम होता है . इस प्रकार असंख्य हाथों का विकास में कोई भागीधारी नहीं है। बिना काम के काम से पैस मिलने के कारण खेती कार्यों में मजदूर नहीं मिल रहें है। जो खेती के लिए अभिशाप है।ये तो रही इस योजना में ईमानदारी की बात।
अब बेईमानी की बात।
एक तो इतने अमीर सरकारी योजन को देख कर अच्छे-अच्छे ललच जाते है। ललचे भी क्यों न? सरकारी धन मिट्टी में ही तो मिलना है। बेकाम के काम का ही पैसा देना है। मिट्टी में मिले का हिसाब कहाँ मिलता है जो इसका हिसाब किताब रखा जाय। दूसरी बात बेकाम के काम के हिसाब में क्या रखा है? इस सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए सरकारी -गैर सरकारी हस्ताक्षरी इसमें अपना भागीदारी सुनिश्चित कर लेते हैं। अब बात आती है उन लोगों की जो बेकाम के काम का पैसा लेते हैं और ठप्पा लगा देते हैं। इस योजना के अंतिम उपभोक्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता की किस काम में कितने लोग वास्तव में काम कर रहे थे और कितने लोग कागज पर।
होता यह है की मुखिया और अन्य सबंधित पदों पर सुशोभित व्यक्तियों द्वारा मनरेगा कार्ड बनाने में ही गड़बड़ी कर दी जाती है तथा कार्ड धारक के नाम पर पैसे निकल लिए जाते है। पूरा तंत्र शामिल है,अतः जाँच की सम्भावना नहीं के बराबर होती है।
इस योजन की खासियत है कि इसमें सब बेवजह खुश हैं। सरकार भी फुले नहीं समा रही , कारण की सरकार इसे वोट-बादल के रूप में देखा रही है।
इसीलिए तो हम कहते हैं यह मनरेगा नहीं मन रे गा ......है।
अब भविष्य की बात।
वर्तमान आर्थिक मंदी और महंगाई के इस दौर में सरकार जिस प्रकार से आधारभूत उत्पादों (रसोई गैस, बिजली तथा पेट्रोलियम पदार्थ इत्यादि) से अपना सब्सिडी हटा रही है उसे देखते हुए यह गुमान होता है कि
एक दिन मनरेगा जैसी योजना का बंद होना तय है। उसके बाद अनगिनत लोग एकाएक आर्थिक तंगी के शिकार हो जायंगे, इससे जो परिस्थितियाँ पैदा होंगी, जो हालात होंगे उससे निपटना किसी भी व्यवस्था के लिए मुश्किल होगा।
मेरे विचार से इस योजना को बंद कर इन पैसों से ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज भंडार बनाये जाये , फसल सुरक्षा के इंतजाम किये जाएँ , ग्रामीण इलाकों में बाजार विकसित कियें जाये , गांवों का शहरों से जुड़ाव बेहतर हों, किसानो को व्यवसायिक कृषि का प्रशिक्षण तथा अन्य जानकारी एवं सुविधाएँ दी जाय , साथ ही साथ शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बेहतर बनाने पर जोर हो। जिससे आधाभूत ढांचा के साथ -साथ कुशल एवं प्रशिक्षित कामगार के द्वारा भारत का नव निर्माण हो सके।
जय हिंद।
राजीव रंजन चौधरी
रविवार, 7 अक्टूबर 2012
मंगलवार, 10 अप्रैल 2012
भ्रष्टाचार - कारण नहीं परिणाम
बुधवार, 21 मार्च 2012
सवाल नियत का नहीं नियति का है.
अब सवाल यह उठता है कि जब सब परेशान है, तो किसी ईमानदार को क्यों नहीं चुना जाता.
अब तक चुन लिया जाता अगर ईमानदार की पहचान होती. ईमानदार और बेईमान की बिच वाली रेखा काल्पनिक है या गायब है. किधर जाएं उलझन है. बहुतों को देखा सब में एक बिमारी है, सरकारी रूपया देखकर नियत बदल जाती है. मगर नियत की क्या बिसात जब नियति ही गड़बड़ है.
यह नियति (माहौल ) रातों रात नहीं बदल सकती कारण कि यह रातों -रात नहीं बनी. है नियति को इस तरह बिगाड़ने में सबसे प्रमुख और प्रबल है व्यक्ति का अपने आप में सिमटना और समाज को दरकिनार करना. जब मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो विकास भी समाज में या समाज के साथ ही होगा. एक -एक व्यक्ति के विकास कि जिम्मेवारी कोई सत्ता या व्यवस्था कभी नहीं ले सकती. किसी समाज का विकास तब तक नहीं. हो सकता जब तक उस समाज में रहने वाले लोग सामूहिक विकास के प्रति जागरूक और सतर्क न हों.
सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से अपने तीन उप - व्यवस्थाओं पर आधारित होता है. ये हैं-१.शिक्षा २.चिकित्सा ३. सुरक्षा . इनमें से किसी कि व्यवस्था व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता, दूसरी तरफ व्यवस्था व्यक्ति के सहयोग के बिना इसे व्यवस्थित नहीं कर सकती.
दुर्भाग्यवश वर्तमान में व्यक्ति औरों से आगे निकलने के होड़ में अपनी व्यवस्था स्वयं करने कि कोशिश कर रहा है, तो व्यवस्था के संचालक इसका गलत फायदा उठाते हुए शिक्ष,चिकित्सा और सुरक्षा तीनों को कोठे पर बिठा दिया है. कोठे का धंधा हीं ऐसा है कि सब, सब तरह से बिकता है.
फलस्वरूप, सव कुछ दाव पर है.
ऐसे माहौल में देश के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को देने, विकास कार्य कि मंजूरी ग्राम सभा द्वारा, कार्य निष्पादन पंचायत द्वारा करने का विचार उपयुक्त है .इससे लोगों में साथ बैठने कि प्रवृति का पुनर्जागरण होगा तत्पश्चात विकास पर बहस तथा अंत में सम्पूर्ण विकास. सरकार पर लेखा-जोखा कि जिम्मेवारी इस विकास में भागीदारी का प्रतिक है.
इस तरह, इस मुद्दे को लागु करने का आन्दोलन सामाजिक पुनर्जागरण का आन्दोलन है ,
अतः जन- जन से मेरा आग्रह है कि इस आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने में अपना भरपूर सहयोग दें.
धन्यवाद
राजीव रंजन चौधरी
शनिवार, 17 मार्च 2012
अधूरे संवाद
इच्छाएँ
जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद
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प्रेम अकर्मक क्रिया है
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जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद
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श्री गोविन्दाचार्य जी के नेतृत्व में पंचायतों को भारत के कुल बजट का सीधे ७% हिस्सा दिया जाए के मांग पर जंतर - मंतर पर १२ ,१३ ,१४ म...