राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन द्वारा भारत के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को दिए जाने पर कुछ लोगों को आपत्ति है कि पंचायतों में मुखिया सारा धन हड़प जायेंगे क्योंकि अभी तक पंचायत स्तर पर सारे कार्यक्रमों में अधिकतर मुखियाओं द्वारा लूट का सिलसिला जारी है. उनकी यह शंका जायज है, कारण की ऐसा ही हो रहा है.
अब सवाल यह उठता है कि जब सब परेशान है, तो किसी ईमानदार को क्यों नहीं चुना जाता.
अब तक चुन लिया जाता अगर ईमानदार की पहचान होती. ईमानदार और बेईमान की बिच वाली रेखा काल्पनिक है या गायब है. किधर जाएं उलझन है. बहुतों को देखा सब में एक बिमारी है, सरकारी रूपया देखकर नियत बदल जाती है. मगर नियत की क्या बिसात जब नियति ही गड़बड़ है.
यह नियति (माहौल ) रातों रात नहीं बदल सकती कारण कि यह रातों -रात नहीं बनी. है नियति को इस तरह बिगाड़ने में सबसे प्रमुख और प्रबल है व्यक्ति का अपने आप में सिमटना और समाज को दरकिनार करना. जब मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो विकास भी समाज में या समाज के साथ ही होगा. एक -एक व्यक्ति के विकास कि जिम्मेवारी कोई सत्ता या व्यवस्था कभी नहीं ले सकती. किसी समाज का विकास तब तक नहीं. हो सकता जब तक उस समाज में रहने वाले लोग सामूहिक विकास के प्रति जागरूक और सतर्क न हों.
सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से अपने तीन उप - व्यवस्थाओं पर आधारित होता है. ये हैं-१.शिक्षा २.चिकित्सा ३. सुरक्षा . इनमें से किसी कि व्यवस्था व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता, दूसरी तरफ व्यवस्था व्यक्ति के सहयोग के बिना इसे व्यवस्थित नहीं कर सकती.
दुर्भाग्यवश वर्तमान में व्यक्ति औरों से आगे निकलने के होड़ में अपनी व्यवस्था स्वयं करने कि कोशिश कर रहा है, तो व्यवस्था के संचालक इसका गलत फायदा उठाते हुए शिक्ष,चिकित्सा और सुरक्षा तीनों को कोठे पर बिठा दिया है. कोठे का धंधा हीं ऐसा है कि सब, सब तरह से बिकता है.
फलस्वरूप, सव कुछ दाव पर है.
ऐसे माहौल में देश के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को देने, विकास कार्य कि मंजूरी ग्राम सभा द्वारा, कार्य निष्पादन पंचायत द्वारा करने का विचार उपयुक्त है .इससे लोगों में साथ बैठने कि प्रवृति का पुनर्जागरण होगा तत्पश्चात विकास पर बहस तथा अंत में सम्पूर्ण विकास. सरकार पर लेखा-जोखा कि जिम्मेवारी इस विकास में भागीदारी का प्रतिक है.
इस तरह, इस मुद्दे को लागु करने का आन्दोलन सामाजिक पुनर्जागरण का आन्दोलन है ,
अतः जन- जन से मेरा आग्रह है कि इस आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने में अपना भरपूर सहयोग दें.
धन्यवाद
राजीव रंजन चौधरी
अब सवाल यह उठता है कि जब सब परेशान है, तो किसी ईमानदार को क्यों नहीं चुना जाता.
अब तक चुन लिया जाता अगर ईमानदार की पहचान होती. ईमानदार और बेईमान की बिच वाली रेखा काल्पनिक है या गायब है. किधर जाएं उलझन है. बहुतों को देखा सब में एक बिमारी है, सरकारी रूपया देखकर नियत बदल जाती है. मगर नियत की क्या बिसात जब नियति ही गड़बड़ है.
यह नियति (माहौल ) रातों रात नहीं बदल सकती कारण कि यह रातों -रात नहीं बनी. है नियति को इस तरह बिगाड़ने में सबसे प्रमुख और प्रबल है व्यक्ति का अपने आप में सिमटना और समाज को दरकिनार करना. जब मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो विकास भी समाज में या समाज के साथ ही होगा. एक -एक व्यक्ति के विकास कि जिम्मेवारी कोई सत्ता या व्यवस्था कभी नहीं ले सकती. किसी समाज का विकास तब तक नहीं. हो सकता जब तक उस समाज में रहने वाले लोग सामूहिक विकास के प्रति जागरूक और सतर्क न हों.
सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से अपने तीन उप - व्यवस्थाओं पर आधारित होता है. ये हैं-१.शिक्षा २.चिकित्सा ३. सुरक्षा . इनमें से किसी कि व्यवस्था व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता, दूसरी तरफ व्यवस्था व्यक्ति के सहयोग के बिना इसे व्यवस्थित नहीं कर सकती.
दुर्भाग्यवश वर्तमान में व्यक्ति औरों से आगे निकलने के होड़ में अपनी व्यवस्था स्वयं करने कि कोशिश कर रहा है, तो व्यवस्था के संचालक इसका गलत फायदा उठाते हुए शिक्ष,चिकित्सा और सुरक्षा तीनों को कोठे पर बिठा दिया है. कोठे का धंधा हीं ऐसा है कि सब, सब तरह से बिकता है.
फलस्वरूप, सव कुछ दाव पर है.
ऐसे माहौल में देश के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को देने, विकास कार्य कि मंजूरी ग्राम सभा द्वारा, कार्य निष्पादन पंचायत द्वारा करने का विचार उपयुक्त है .इससे लोगों में साथ बैठने कि प्रवृति का पुनर्जागरण होगा तत्पश्चात विकास पर बहस तथा अंत में सम्पूर्ण विकास. सरकार पर लेखा-जोखा कि जिम्मेवारी इस विकास में भागीदारी का प्रतिक है.
इस तरह, इस मुद्दे को लागु करने का आन्दोलन सामाजिक पुनर्जागरण का आन्दोलन है ,
अतः जन- जन से मेरा आग्रह है कि इस आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने में अपना भरपूर सहयोग दें.
धन्यवाद
राजीव रंजन चौधरी