मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

मनरेगा या मन रे गा ...

                                           
वर्तमान व्यवस्था में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा जिस योजना पर सबसे ज्यादा प्रकाश (फोकस ) डाला जा रहा है वह है मनरेगा  (Mahatma Gandhi National Rural Employment Gurantee Act ). प्रचार -प्रसार के सारे  माध्यमों  द्वारा इस योजना को भारत नवनिर्माण की बुनियाद बताया जा  रहा है . एक तरफ सरकार द्वारा इस बेमतलब योजन के  साथ -साथ इसके  प्रचार पर भी करोड़ों खर्च  रहे हैं  दूसरी तरफ प्रधान मंत्री
कहते हैं कि पैसे पेंड़  पर नहीं लगते .आज हम इसके तह में जाकर लेखा -जोखा के मूड में है।

रोजगार का अभिप्राय उस नियमित कार्य से है जिसके निष्पादन के  उपरांत नियमित रूप से धन प्राप्ति हो जिससे घर परिवार का खर्च वहन  किया जा सके .  मनरेगा  आया रोजगार लेकर  लेकिन एक ऐसा रोजगार जो रोज दम तोड़ देता है . आज किये गए काम का कल कोई मतलब नहीं। मजदूरी या वेतन काम के बदले मिलता है परन्तु यहाँ पैसा खर्च करने के लिए काम  होता है  यानी मेहनताना पहले मेहनत बाद में। यह इस योजना की बुनियादी विकार है। एक तरह से यह  विकासशील भारत की सबसे बड़ी बाधा है। करोडो हाथ केवल पैसे के लिए काम  पर जाते है, उनके  काम से लौटते ही उस काम का कोई मतलब नहीं रहता . इसके तहत ऐसा कोई कम नहीं होता जिसका  विकास में भागीदारी हो सके . इस योजना के अंतर्गत  केवल काम यानि  कि मजदुरी के पैसे होते है किसी संसाधन के नहीं . संसाधन के अभाव में केवल मिट्टी  खोदने और गढे  भरने का का काम  होता है . इस प्रकार असंख्य हाथों का विकास में कोई भागीधारी नहीं है।   बिना काम के काम से पैस मिलने के कारण खेती कार्यों में मजदूर नहीं मिल रहें है। जो खेती के लिए अभिशाप है।ये तो रही इस योजना में ईमानदारी की बात।
अब बेईमानी की बात।
  एक  तो इतने अमीर  सरकारी  योजन को देख कर अच्छे-अच्छे ललच जाते है। ललचे भी क्यों न? सरकारी धन मिट्टी  में ही तो मिलना  है। बेकाम के काम का ही  पैसा देना है। मिट्टी में मिले का हिसाब कहाँ मिलता  है जो इसका हिसाब किताब रखा जाय। दूसरी बात बेकाम  के काम के हिसाब में क्या रखा है? इस सिद्धांत को ध्यान  में रखते हुए सरकारी -गैर सरकारी  हस्ताक्षरी इसमें अपना भागीदारी सुनिश्चित कर लेते हैं। अब बात आती है उन लोगों की जो बेकाम के काम का पैसा लेते हैं और  ठप्पा लगा देते हैं।  इस  योजना  के अंतिम उपभोक्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता की किस काम में कितने लोग वास्तव में काम कर रहे थे और कितने लोग कागज पर।
 होता यह है की मुखिया और अन्य  सबंधित पदों पर सुशोभित व्यक्तियों द्वारा मनरेगा  कार्ड  बनाने में ही गड़बड़ी कर दी जाती है तथा कार्ड धारक के नाम पर पैसे निकल लिए जाते है। पूरा तंत्र शामिल है,अतः जाँच की सम्भावना नहीं के बराबर  होती है।
इस योजन की खासियत है कि इसमें सब बेवजह खुश हैं। सरकार भी फुले नहीं समा रही , कारण  की  सरकार  इसे वोट-बादल  के रूप में देखा रही है। 

इसीलिए तो हम कहते हैं यह मनरेगा  नहीं मन  रे   गा ......है।

    अब भविष्य की बात।
 वर्तमान आर्थिक मंदी और महंगाई के इस दौर में सरकार  जिस प्रकार से आधारभूत उत्पादों (रसोई गैस, बिजली तथा पेट्रोलियम पदार्थ इत्यादि) से अपना  सब्सिडी  हटा रही है उसे देखते हुए यह गुमान होता है कि 
एक दिन मनरेगा  जैसी योजना का बंद होना तय है। उसके बाद अनगिनत लोग एकाएक आर्थिक तंगी के शिकार हो जायंगे, इससे जो परिस्थितियाँ पैदा होंगी, जो हालात होंगे उससे निपटना किसी भी व्यवस्था के लिए मुश्किल होगा।

मेरे विचार से इस योजना को बंद कर इन पैसों से ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज  भंडार बनाये जाये , फसल  सुरक्षा के इंतजाम किये जाएँ , ग्रामीण इलाकों में बाजार विकसित कियें जाये , गांवों का शहरों से जुड़ाव बेहतर हों, किसानो को व्यवसायिक कृषि का प्रशिक्षण तथा अन्य जानकारी एवं सुविधाएँ दी जाय , साथ ही साथ शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बेहतर बनाने पर जोर हो। जिससे आधाभूत ढांचा के साथ -साथ कुशल एवं प्रशिक्षित कामगार के द्वारा भारत का नव निर्माण हो सके।

जय हिंद।


राजीव रंजन चौधरी







 

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

भारत की व्यवस्था लोकतान्त्रिक है  .यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसका  ताना-बाना जनता द्वारा बुना गया हो।
 परन्तु वर्तमान  व्यवस्था कही से भी आम लोगों के पक्ष में प्रतीत नहीं हो रही। इसके उलट यह मछली पकड़ने वाले  ऐसे जाल की तरह है जिसमें लोक -लुभावन जनहितकारी योजनायें उसी तरह गुथी गई हैं जैसे जाल  में मछली पकड़ने के लिए चारे गुथे जाते है। 

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

भ्रष्टाचार - कारण नहीं परिणाम

भ्रष्टाचार होता रहेगा मकसद सिर्फ पैसा. कारण पैसा  वर्तमान व्यवस्था की आत्मा है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार की जड़ . भ्रष्टाचार पैसे के लिये हो रहा या पैसे से हो रहा है.  इस तरह भ्रष्टाचार वर्तमान अव्यवस्था का कारण नहीं बल्कि वर्त्तमान अव्यवस्था का नतीजा है.
  केवल भ्रष्टाचार पर काबू करने के सारे प्रयास बेकार ही साबित होंगे जब तक की हमारी व्यवस्था  सामाजिक मूल्यों के अनुरूप न हो.



वर्तमान समय में भ्रष्टाचार सबसे ज्यादा ज्वलंत एवं विचारणीय विषय है उससे भी ज्याद यह  अपने -आप में  उलझा हुआ है. इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करने के क्रम में सबसे  पहले शब्द  विचार  करते हैं .  भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है भ्रष्ट आचरण यानि ऐसा आचरण जो हमारे सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप या अनुकूल न हो. इसमें सबसे बड़ी खासियत यह है कि जो होता वह दिखता नहीं, जो दिखता वह होता नहीं. इसलिए इसके कार्यकलापों का दायरा भिन्न -भिन्न रूपों में बढ़ जाता है. दुसरे तरफ शक का दायरा भी बढ़ जाता है और विश्वास सिमटते जाता है. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि अगर कोई व्यक्ति या समूह कभी निजी स्वार्थ से उठकर सामाजिक हित कि बात करता है तो हम उसका भरोसा  नहीं करते. इस तरह सामूहिक विकास का गला घुट जाता है.
    भ्रष्टाचार का विलोम शब्द ईमानदारी है  जो ईमान से बना है जिसका अर्थ है  खुदा में  विश्वास. यानि  स्वयं  से हटकर उस सर्वशक्तिमान में आस्था जिसके  यहाँ देर है अंधेर नहीं, जहाँ इंसाफ होता है ,धोखा नहीं जिसका अस्तित्व जीवन -मरण से ऊपर है. यह तो पूरी तरह धार्मिक बात है. सत्ता और व्यवस्था में  धर्म कि बात करना सांप्रदायिक है .इससे तो दंगे -फसाद फैलते हैं. जी नहीं ,  दंगा किसी   भगवन,  मंदिर,मस्जिद और गुरुद्वारे से नहीं फैलता , दंगा हम फैलाते हैं  अपने  निजी स्वार्थ के लिए . यह भी भ्रष्टाचार  है. कारण कि होता कुछ है दिखता कुछ और है. हमारी पुरानी आदत / परम्परा है ,  जब  अच्छा हो  तो मैंने किया बुरा हो तो भगवन ने . इसका मतलब है हम अच्छे  भगवन बुरा.       सरासर झूठ.
    खैर , यह भ्रष्टाचार रुपी राक्षस किसी राम-कृष्ण से भी मिटने वाला नहीं.है क्योंकि इसे हम सभ्य लोगों ने समाज और संस्कृति  को छोड़ सबसे से आगे निकलने के लिए अपने जीवन के हरेक रंग -ढंग में शामिल कर लिया है. इसका भी कारण है. समय के साथ हम और समज दोनों बदले .  समज हमेशा  से किसी न किसी सत्ता के अधीन रहा है,आज भी है. अंतर इतना है पहले समाज राज सत्ता के अधीन,  राजा धर्म सत्ता के अधीन ( राजा के प्रत्येक निति और निर्णय में पुरोहित की भूमिका निर्णायक  होती  थी ).  इस तरह सामाजिक व्यवस्था धार्मिक नियमों से नियंत्रित एवं निर्देशित थी. धर्म अध्यात्मिक विकास पर जोर देता है तथा अध्यात्म नैतिक विकास पर .तब भारत जगत गुरु था.

 बितते समय के साथ धर्म के अन्दर पाखंडो का घुलना-मिलाना  प्रारंभ हुआ. लम्बे समय तक विरोध भी नहीं हुआ क्योंकि धर्म आस्था पर टिका था. जब विरोध हुआ तो धीरे-धीरे व्यवस्था बदल गयी .पहले निरंकुश राजशाही फिर बाहरी आक्रमण उसके बाद वर्तमान लोकतंत्र. इस तरह जो व्यवस्था आयी इन सब में अर्थ (धन ) का दबदबा कायम रहा. दुसरे शब्दों में वर्तमान व्यवस्था अर्थ के लिए , अर्थ द्वारा , अर्थ (आर्थिक संसाधनों) पर किया जा रहा शासन है..
   इस तरह इस अर्थ प्रधान समाज में सबों का धन के पीछे भागना स्वाभाविक है. अगर धन नहीं तो कुछ नहीं. हमारी सारी आवश्यकताएं वित्त आधारित है. रोटी, कपड़ा,मकान,शिक्षा और  ईलाज के साथ-साथ सुरक्षा भी.  वित्त के आभाव में हम अपनी जिंदगी एक पल , एक कदम भी नहीं. हिला सकते.चलने की बात तो दूर है. ऐसे में चित्त का वित्त के पीछे दौड़ लगाना जायज है या नाजायज कहना  मुश्किल है.
      किसी को कितन पैसा चाहिए यह सीमा समाज को तय करना  है.. जब तक समाज को बुनियादी सुविधाए नहीं नहीं मिलेगी यह तय करना असंभव कार्य है.अगर नहीं. तो समज पैसे के पीछे -पीछे दौड़ लगाएगा और इस दौड़ में समाज की सारी मर्यादाएं बिखर जाएगी सरे वसूल पीछे छुट जाएँगे .
  भ्रष्टाचार होता रहेगा मकसद सिर्फ पैसा. कारण पैसा  वर्तमान व्यवस्था की आत्मा है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार की जड़ . भ्रष्टाचार पैसे के लिये हो रहा या पैसे से हो रहा है.  इस तरह भ्रष्टाचार वर्तमान अव्यवस्था का कारण नहीं बल्कि वर्त्तमान अव्यवस्था का नतीजा है.
    केवल भ्रष्टाचार पर काबू करने के सारे प्रयास बेकार ही साबित होंगे जब तक की हमारी व्यवस्था  सामाजिक मूल्यों के अनुरूप न हो.


धन्यवाद 
राजीव रंजन चौधरी
  
    





 

बुधवार, 21 मार्च 2012

सवाल नियत का नहीं नियति का है.

राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन द्वारा भारत के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को दिए जाने पर कुछ लोगों को आपत्ति है कि पंचायतों में मुखिया सारा धन हड़प जायेंगे क्योंकि अभी तक पंचायत स्तर पर सारे कार्यक्रमों में अधिकतर मुखियाओं द्वारा लूट का सिलसिला जारी है.   उनकी यह शंका जायज है, कारण की ऐसा ही हो रहा है.
      अब सवाल यह उठता है कि जब सब परेशान है,  तो किसी ईमानदार को क्यों नहीं चुना जाता.
अब तक चुन लिया जाता अगर ईमानदार की पहचान होती. ईमानदार और बेईमान की बिच वाली रेखा काल्पनिक है या गायब है. किधर जाएं उलझन है. बहुतों को देखा सब में एक बिमारी है, सरकारी रूपया देखकर नियत बदल जाती है. मगर नियत की क्या बिसात जब नियति ही गड़बड़ है.
   यह नियति  (माहौल ) रातों रात नहीं बदल सकती कारण कि यह रातों -रात नहीं बनी. है  नियति को इस तरह बिगाड़ने में  सबसे प्रमुख और प्रबल है व्यक्ति का अपने आप में सिमटना और समाज को दरकिनार करना. जब मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो विकास भी समाज में या समाज के साथ ही होगा.  एक -एक व्यक्ति के विकास कि जिम्मेवारी कोई सत्ता या व्यवस्था कभी नहीं ले सकती. किसी समाज का विकास तब तक नहीं. हो सकता जब तक उस समाज में रहने वाले लोग सामूहिक विकास के प्रति जागरूक और सतर्क न हों.
   सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से अपने तीन उप - व्यवस्थाओं पर आधारित होता है. ये हैं-१.शिक्षा २.चिकित्सा  ३. सुरक्षा . इनमें से किसी कि व्यवस्था व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता, दूसरी तरफ व्यवस्था व्यक्ति के सहयोग के बिना इसे व्यवस्थित नहीं कर सकती.
      दुर्भाग्यवश वर्तमान में व्यक्ति औरों से आगे निकलने के होड़ में अपनी व्यवस्था  स्वयं करने कि कोशिश कर रहा है, तो व्यवस्था के संचालक इसका गलत फायदा उठाते हुए शिक्ष,चिकित्सा और सुरक्षा तीनों को कोठे पर बिठा दिया है. कोठे का धंधा हीं ऐसा है कि सब, सब तरह से बिकता है.
  फलस्वरूप, सव कुछ दाव पर है.
    ऐसे माहौल में देश के कुल बज़ट का ७% सीधे पंचायतों को देने, विकास कार्य कि मंजूरी ग्राम सभा द्वारा, कार्य निष्पादन पंचायत द्वारा करने का विचार उपयुक्त है .इससे लोगों में साथ बैठने कि प्रवृति का पुनर्जागरण  होगा तत्पश्चात विकास पर बहस तथा अंत में सम्पूर्ण विकास. सरकार पर लेखा-जोखा कि जिम्मेवारी इस विकास में भागीदारी का प्रतिक है.
   इस तरह,  इस मुद्दे को लागु करने का आन्दोलन सामाजिक पुनर्जागरण का आन्दोलन है ,
   अतः जन- जन से मेरा आग्रह है कि इस आन्दोलन को जन-जन तक पहुँचाने में अपना भरपूर सहयोग दें.



धन्यवाद

राजीव रंजन चौधरी


   

शनिवार, 17 मार्च 2012

अधूरे संवाद

       श्री गोविन्दाचार्य जी के नेतृत्व में पंचायतों  को भारत के कुल बजट का सीधे  ७% हिस्सा दिया जाए के मांग पर  जंतर - मंतर पर १२ ,१३ ,१४ मार्च को धरना- प्रदर्शन का  किया गया. मांग वाजिब और सटीक है. इसे लागु करने का तरीका  भी लिक से हटकर है कि 
ग्राम सभा  आम सहमती से विकास कार्यों को मंजूर करे तथा ग्राम पंचायत को कार्य निष्पादन कि जिम्मेवारी हो.
    देश भर से गोविन्द जी और राष्ट्रीय स्वाभिमान  आन्दोलन से जुड़े हुए लोग इस मुद्दे को अपना समर्थन और सहयोग देने के लिए जंतर मंतर पर पहुंचे .  यह मुद्दा पहली बार उठाया गया है
इसलिए यह तो शुरुआत है. इस मुद्दे  की मंजिल सरकार द्वारा पंचायत को धन देना नहीं बल्कि गाँवों द्वारा इसे स्वीकारना  और पूरी ताकत के साथ आवाज उठाना है. कारण कि जब तक गाँव अपने विकास  के बारे में खुद विचार और बहस नहीं करते तब तक इस विषय का मंथन नहीं होगा . भारत गांवों का देश है इसलिए गाँव की आवाज को कोई भी सरकार क्या, कोई भी व्यवस्था न तो नकार सकती है ना ही  दबा सकती है. 
    अब सबसे बड़ी चुनौती इस मुद्दे को सही सलामत गांवों तक पहुंचाना है. कभी - कभी कहने -सुनाने में मुद्दे भी भटक जाते हैं.  गांवों तक इसे पहुचने के लिए बड़ी संख्या में ग्रामीण कार्यकर्ताओं और  वैसे लोगो की आवश्यकता है जो गाँव के मिजाज को अच्छी  तरह समझते है
 इसके लिए राष्ट्रिय स्वाभिमान आन्दोलन के नेतृत्व यानि गोविन्द जी और उनसे जुड़े लोगों तथा ग्रामीण कार्यकर्ताओं के बिच संवाद जरुरी है
   परन्तु जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय धरना के दौरान बहुत से ऐसे लोग संवाद नहीं कर पाए जिनके विचारो की नितांत आवश्यकता है, जबकि ऐसे बहुत से लोग बोलते गए जिनका इस विषय से कोई लेना देना नहीं है. वे इसलिए बोलते गए क्योंकि वे गोविन्द जी से जुड़े लोगों से जुड़े हैं और वर्षों से ऐसे धरना  प्रदर्शनों में बोलते रहे हैं. ये किसी मुद्दे पर कुछ  समय तक  बोलने में समर्थ है. 
 ऐसे मौकों पर कौंग्रेस पार्टी  तथा सोनिया गाँधी को भला - बुरा कहना या बज़ट के ७% में से १०-१५% पहुचने की बात करना बेतुक तो था हीं साथ - साथ देश भर से आये लोगों की भावनाओं को  आहत करना था.
 संवाद सही मायनों में उचित विषय पर, उचित  व्यक्ति द्वारा, उचित समय पर, उचित शब्दों द्वारा, उचित व्यक्ति के साथ विचार विमर्श है.  इस दृष्टि से तीन दिवसीय धरना के दौरान संवाद अधुरा रहा . अधूरे संवाद से सहमती नहीं , जब सहमती नहीं तो सहकार काल्पनिक होता है.    
  अगर हालात ऐसे ही रहे तो राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन ऐसे अवसादों की वजह से अपने कार्यकर्ताओं, सहयोगियों तथा समर्थकों से संवाद नहीं कर पायेगा. जैसे पानी गर्म करने वाला छड अवसाद जमा हो जाने से अपना कम ठीक से नहीं कर पाता.

        अब चर्चा  इस बात पर होना चाहिए की इस मुद्दे  को गांवों तक कैसे पहुँचाया जाय ताकि यह मुद्दा दिल्ली का न रहकर गाँव का होकर पुरे जोश के साथ पुरे भारत में उभरे और भारत के विकास का नेतृत्त्व करे.


धन्यवाद

राजीव रंजन चौधरी

बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना की गिरफ्तारी और रिहाई 


कल का घटनाक्रम में अन्ना  की गिरफ्तारी कोई आश्चर्यजनक नहीं था. अगर कुछ आश्चर्यजनक था तो सत्ता के जोकों की घबराहट और व्यवस्था की चरमराहट . देर शाम अन्ना  की रिहाई की घोषणा की गयी . परन्तु अन्ना के जेल से बाहर तब तक न निकालने का फैसला जब तक उन्हें समर्थकों के साथ जे पी पार्क में अनशन करने की अनुमति न मिले. यह सत्ता को और मुश्किल में ड़ाल दिया है .
यह विचार अन्ना जैसे परिपक्व और जनता के विचारो के समझाने वाले व्यक्तित्व के मष्तिष्क में ही आ सकता है.



                             राजीव रंजन चौधरी

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

अब

बर्बादियों के घेरे से निकली हैं राहें ,
उम्मीदों के दर पे टिकी हैं निगाहें .
ओ खुद को खुदा समझने वाले ,
क्यों नहीं समझते, बेबसों की सिसकती आहें.
क्यों नहीं जाते , जहाँ राह देखती सुनी राहें.
जिन्हें तुने ठगा , यही हैं वो लोग सीधे  सादे,
भूल गए 5 साल पहले किये गए  अपने ही वादे.
भेड़िये आते है हर बार मुँह में तिनका दबाये,
दोनों हथेलिया सटा कर  विनम्रता से सिर झुकाए.
बड़े सादगी से झूठे वादों से लुभाने , 
हर  तरफ तूफां पे रेत के महल बनाने. 
अब समझ गए  हैं  तेरी उलझी  पहेली,
बैठ कर मलते रहो अब अपनी हथेली.  
भाग्यविधाता तू नहीं हम स्वयं रहेंगें,
अपने हाथों नव भारत का निर्माण करेंगे . 
                                     
                               ....... राजीव रंजन चौधरी

इच्छाएँ

  जय गुरुदेव , एक से अनेक होने की इच्छा से उत्पन्न जीवन में इच्छाएँ केवल और  केवल सतही हैं। गहरे तल पर जीवन इच्छा रहित है। धन्यवाद